हिन्दू धर्म में सोलह संस्कार
सभी सुधी जनों को नमस्कार।
सामान्य अर्थ में यदि विचार करें तो अच्छी तरह से परिष्कृत करना, दोषों को अवगुणों को
न्यून करके गुणों की स्थापना करना ही संस्कारित करना होता है और यह सिद्धांत व्यक्ति, वस्तु, स्थान, सभी पर लागू होता है।
जैसे खेत में उगने वाला धान है,उसका मूल स्वरूप से हम सभी परिचित हैं । उसका स्वरूप, गुण, तथाशक्ति अभी न्यून है।
किंतु फिर आरम्भ होता है उसका संस्कार,उसे पौधे से अलग करना, फिर बालियों से अलग करके धूप में सुखाना, फिर मिल में ले जाकर छिलका उतारना जब इतने संस्कार हो जाते हैं तब हमें चावल मिलता है फिर उसे जल से धोना और आग में पकाना जब ये संस्कार भी हो जाते हैं तब हमें प्राप्त होता है 'भात" जो समस्त जीवों की क्षुधा को शांत करता है।
जीव को मनुज , मानव, मनुष्य बनने के लिए संस्कारों की आवश्यकता होती है।
हमारे हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों की सर्वाधिक मान्यता है जो श्रेष्ठ भी है ।
अन्यान्य आचार्य गण तो पचास अथवा, चौबीस आदि आदि संख्याएं भी संस्कारो के लिए मानते हैं किंतु सोलह संस्कार सर्वाधिक मान्य हैं। इन्हीं संस्कारो से संस्कारित होकर जीव मनुष्य बनता है जो समस्त सृष्टि के लिए कल्याण कारी होता है।
सोलह संस्कार निम्नवत् हैं--
1- गर्भाधान संस्कार,
2- पुंसवन संस्कार,
3- सीमन्तोन्नयन संस्कार,
4- जात कर्म संस्कार,
5- नामकरण संस्कार,
6- निष्क्रमण संस्कार,
7- अन्नप्राशन संस्कार,
8- मुंडन संस्कार,
9- कर्ण वेध संस्कार,
10- उपनयन (यज्ञोपवीत ) संस्कार,
11- विद्यारम्भ संस्कार,
12- समावर्तन संस्कार,
13- विवाह संस्कार,
14- वानप्रस्थ संस्कार,
15- सन्यास संस्कार,
16- अंत्येष्टि संस्कार।
इन सोलह संस्कारों से संस्कारित जीव निश्चित रूप से मेधावान, शक्तिमान, सकारात्मक, और धन सम्पन्न होकर देश, ग्राम, समाज के लिए कल्याणकारी कर्मों को करता है।
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